यूपी से एक शिक्षक की ज़ुबानी : सरकारी और प्राइवेट शिक्षकों में सामाजिक भेदभाव

Devendra Dev taught children

समाज ऐसी अवधारणा बना चुका है कि सरकारी अध्यापक हराम की खाता है और प्राइवेट अध्यापक जी तोड़ मेहनत करता है। साथ ही एक और अवधारणा इसी समाज का हिस्सा है जो कि प्राइवेट अध्यापकों को आये दिन शर्मशार होने पर मजबूर करती रहती है, वो है, लोगों द्वारा कहा जाना – अगर फलां प्राइवेट अध्यापक इतना ही काबिल होता तो सरकारी मास्टर नहीं हो जाता।

ये दोनों अवधारणाएं एक-दूसरे से एकदम उलट हैं, फिर भी आज के समाज मे बाकायदा मौजूद हैं।

अपने 18 साल के उतार-चढ़ाव से भरे टीचिंग कैरियर में बहुत से अनुभव हुए हैं, हालांकि जो कुछ मैं बता रहा हूं वो समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर लागू नहीं होता, क्योकि हर कोई आपकी गतिविधियों की ओर ध्यान दे ये आवश्यक नहीं है।

मैंने अपनी पूरे अध्यापन कैरियर 5-7 ऐसे लोगों को पाया जिन्होंने मेरे प्राइवेट पढ़ाने की खिल्ली उड़ाई, जिन वाक्यों का प्रयोग करके मुझे उकसाने या नीचा दिखाने की कोशिश की गई, उनमे से कुछ ज्यों के त्यों लिख रहा हूं, और मेरा मानना है कि यदि आप मे से कोई प्राइवेट अध्यापक इस पोस्ट को पढ़ रहा है तो उसे लगेगा कि मैंने वो घटना लिख दी है जो मेरे साथ नहीं बल्कि उनके ही साथ घटित हुई, क्योकि ऐसा लगभग हर प्राइवेट अध्यापक के साथ होता है।

1- कौन? जौ पढ़ाय रहो है, जौ खुदै ढंग से नाई पढ़ो, पढ़ो होतो तौ खुदै लगि नाई जातो?

2- 1000-2000 रुपया पै पढ़ाय रौ है, इत्तो तौ मेरो 15 दिन को पौआ को खर्चा है।

3- जो खुद नाई लगि पाओ, वौ दूसरे कौ का लगवाई है?

4- जौ कब ते माट्टर हुइ गयो? चूतिया!

5- जब कछु न मिले, तौ प्राइवेट मास्टर हुई जाओ, जहे आसान है?

6- जहो मास्टर है? (कुटिल हंसी हसते हुए)

7- प्राइवेट पढ़ाने वाले वे बेरोजगार हैं, जो कुछ नही कर पाते, तब जाकर मास्टर बन जाते हैं (ऐसे लोग जो कहीं सेटल हैं, उनके द्वारा इस तरह की बात होती है)

प्राइवेट पढ़ाना, पढ़ाने से ज्यादा स्वयं को स्थापित करने का संघर्ष है, ऐसा मैंने पाया है।

प्राइवेट अध्यापक को हर जगह अपनी योग्यता साबित करनी होती है, अपनी मेहनत को परिणाम के रूप में प्रदर्शित करना होता है, किसी को कुछ बताते समय उसका प्रूफ देना पड़ता है, फिर भी उसे वह सम्मान नहीं मिल पाता जिसका वह हकदार है।

दूसरे ओर सरकारी अध्यापक बनते ही, आपकी सारी बातें पत्थर की लकीर हो जाती हैं, वो सभी आपकी तारीफ करने लगते हैं जो कल तक आपके आलोचक थे।

मैंने चूँकि दोनों प्रकार के दिन देखे हैं, तो मेरा मानना है कि लोग आपकी योग्यता और परिश्रम से आपका आकलन नहीं करते बल्कि आपका आकलन आपको मिलने वाली सैलरी से करते हैं, वो सरकारी और प्राइवेट में विभेद बांकी किसी कारण से नहीं बल्कि 2000 और 50000 की सैलरी के कारण करते हैं।

हमारे समाज का एक घिनौना चेहरा यह भी है जहां इंसान को असली गुणवत्ता के बजाय केवल उसकी सैलरी से जाना जाता है।

मुझे लगता है कि सरकारी जॉब में आने के एक बाद से ही उस व्यक्ति की समाज मे स्वीकार्यता बढ़ जाती है, जो कल तक स्वीकार्य नहीं था, जबकि उस व्यक्ति में कोई परिवर्तन नहीं आता, परिवर्तन आता है तो केवल उसे देखने के लोगों के नजरिये में।

बदलिए थोड़ा सा नजरिया! थोड़ा सा सम्मान देने का क्राइटेरिया।

लेखक : देवेंद्र “देव” एक प्राथमिक शिक्षा के शिक्षक होने के साथ साथ एक बेहतरीन कवि भी हैं