दलित हो और फ्लाइट में उड़ रही हो !

लेखक : करन डैमरोत

आज जब देश में आजादी के 75 साल होने के क्रम में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। ऐसे में अपने अतीत पर एक नजर डालते हुए वरिष्ठ दलित साहित्यकार प्रोफेसर डॉ. रजत रानी ‘मीनू’ ने देश की विकासयात्रा के साथ कदम मिलाने की कोशिश में चल रहे दलित समाज की यात्रा का को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार परिस्थितियां पहले से थोड़ी बदली हैं और उसमें सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात है, दलितों में आत्मसम्मान का प्रसार। वे कहतीं हैं “मुझे अपनी जाति को लेकर कभी यह नहीं लगा मैं किसी से कमतर हूं। मैंने अपनी जाति कभी नहीं छिपाई।” जाहिर है ये सब बाबासाहेब द्वारा किए गए संवेधानिक प्रयासों और ही संभव हो पाया है।

लेखिका ने सहित्य-दुनिया में दलित साहित्य रूपी शिशु के जन्म लेने और उसके तरुण, किशोर और प्रौढावस्था में पहुँचने की प्रक्रिया को अपनी आँखों से देखा है वे अपने शोधार्थी जीवन को याद करते हुए कहती हैं

“शुरुआती दौर में दलित साहित्य का आज की तरह न होना, हम जैसे शोधार्थियों के लिए काम करना कठिन रहा ऐसे में सामग्री जुटाना और उच्च सोच के समाज में अपने विषय को मनवाना दोनों ही मुश्किल रहे। उस समय दलित साहित्यकारों की पुस्तकें आज की तरह नहीं लिखी गई थीं। लाइब्रेरी में इनके बारे में ज्यादा किताबें नहीं होती थीं।”

अपने प्रोफेसर बनने के क्रम में उन्होनें बड़े-बड़े विश्विद्यालयों में 25 से ज्यादा बार साक्षात्कार दिए थे तो वहाँ भी राह कोई आसान नहीं थी…..”जॉइनिंग से पहले हमेशा यही सवाल होता कि तुमने दलित साहित्य पर काम किया है? दलित साहित्य क्या होता है? दलित साहित्य कौन लिख सकता है? या दलित साहित्य के बारे में पूर्वाग्राही सवाल पूछे जाते। खूब बहस होती मगर नियुक्ति नहीं।”…..आज अपने करियर के सफलतम पायदान पर पहुँच दलित साहित्य के विकास को लेकर गर्वित लेखिका उस दौर के संघर्ष को याद करते हुए कहती हैं कि ” लेकिन हमनें हिम्मत नहीं हारी। आज उसी हिम्मत का परिणाम है कि दलित साहित्य का एक वटवृक्ष बन गया है, जिसका लाभ सभी ले रहे हैं।”

दलित समाज में आ रही विद्रोही चेतना के बारे में उनका एक कथन दृष्टव्य है “मैं भी चुप नहीं रहती। उन्हें जबाव ज़रुर देती।” दलित समाज उसमें भी दलित स्त्री अगर आत्मविश्वास के साथ यह कह रही है तो इसके कई सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आयाम हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए।

जाति-सरनेम जानने की सवर्णों की कुटिल जिज्ञासा और बताने या न बताने का दलितों का द्वंद्व उनके कहानी संग्रह ‘हम कौन हैं’ की कहानियों में प्रमुखता से उभरा है लेकिन इस लेख में हम पाते हैं कि असल में वह लेखिका की अपनी जिंदगी का भी एक बड़ा द्वंद्व रहा है लेकिन सन्तोष का विषय यह है कि लेखिका नें उस द्वंद्व पर विजय हासिल कर ली है उन्हीं के शब्दों में “मुझे कभी यह नहीं लगा मैं किसी से कमतर हूं। मैंने अपनी जाति कभी नहीं छिपाई और कई बार इसका खामियाजा भी झेलना पड़ा।”

जाति व्यवस्था की काली छाया हर दलित की तरह लेखिका के साथ भी हमेशा की चिपकी रही है वे कहती हैं “मैंने और मेरे परिवार ने दलित दंश को झेला” आगे वे लिखती हैं “यही नहीं कोई मेरी जाति की वजह से मेरे साथ खाना नहीं खाता तो कोई मेरे मुंह के सामने ही जातिसूचक गालियां मुझे रसीद कर जाता।”

गाँव से शहर की अपनी यात्रा में लेखिका जाति को हमेशा अपने साथ सफर करते पाती हैं। गांव की स्मृतियों को याद कर वे कहती हैं “जब भी पापा गांव में चाचा के पास चिट्ठी भेजते तो ‘सरनाम सिंह’ (जाटव) लिखकर भेजना पड़ता, ताकि डाकिया को पता चल सके कि चिट्ठी जाटव मोहल्ले की है। मुझे यह देख कर अजीब लगता था। गांव में हर जाति के अलग टोले होते हैं। सबके बीच जाति की रेखाएं खिचीं होती हैं। इसी घेरे में सबको रहना होता है। मैं इससे अलग नहीं थी।” और शहर में पहुंचते ही “ऐसा नहीं था कि गांव से शहर में आ गई हूं तो जाति का मैल मुझसे छूट गया होगा, नहीं। ये साथ चिपका रहा, साथ-साथ चलता रहा। इस बार खुलकर नहीं छुपकर वार किए गए। जब कॉलेज पहुंची तो लोग पूरा नाम पूछते। नाम में छुपी जाति ढूंढ़ते।जाति मालूम होते ही कटुता भरा व्यवहार होता।”

“तुम …… लगते नहीं हो” एक कटाक्ष जो मिडल क्लास या ठीक-ठाक तरीके से रहने वाले दलितों को अक्सर सुनने को मिलता है। स्वाभिमानी और ओजस्वी लेखिका को भी अक्सर सुनने को मिला है। उनके अनुसार “शिक्षिकाएं मुझे साफ और इस्त्री किए कपड़े पहने देखतीं तो अक्सर कहती ‘मीनू जाटव लगती नहीं है।’ मेरी सहपाठी भी इसी तरह से मेरे सामने बोलती थीं।”

ऐसे ही एक जगह उन्होनें साहित्यकार राजेन्द्र यादव के साथ अपने इसी प्रकार के अनुभव को लिखा है कि….

“श्योराज तुम्हारी वाइफ दलित लगती नहीं है…..” ये लगना क्या होता है लेखिका को अब तक सोच में डाल देता है।

अभी भी आधुनिकीकरण और मशीनीकरण के युग में जहाँ भौतिक दूरी भले ही कम हो गई है…. सवर्ण समाज नें दलितों से मानसिक दूरी सफलतापूर्वक बनाए रखी है। यह तब प्रमाणित होता है जब लेखिका को फ्लाइट में वैल-एजुकेटड सवर्णों से “दलित हो फ्लाइट में उड़ रही हो” या ‘”महंगी साड़ी, एअर ट्रैवल, महंगा फोन और उस पर इतना घर भी सुंदर” जैसे शब्द सुनने को मिलते हैं।

नब्बे के दशक में आए सामाजिक आंदोलनों में उबाल, मंडल कमीशन व उसके बाद बदली परिस्थितियों का जिक्र भी उन्होंने अपने इस आत्मकथात्मक अंश में किया है।

इस अंश में अपनी जीवन-विकासयात्रा में लेखिका ने अपने जीवनसाथी श्योराज सिंह ‘बेचैन’ का महत्वपूर्ण योगदान को भी खुले मन से स्वीकारा है। जो दलित स्त्री और दलित पुरुष के बीच के हमेशा से रहे सहयोग और समझ को प्रमाणित करता है।

एक दलित उम्र भर समाज-धर्म द्वारा दिए गए दंश लेकर जीता है। चाहे तो वह बदले की भावना रख सकता है लेकिन समाज के प्रति यह एक दलित का बड़प्पन ही है कि वह सारे गिले शिकवे भुला पूरी प्रतिबद्धता के साथ उसी समाज में सुधार के प्रयास करता है। उसे और समतामूलक और मानवीय बनाने का प्रयास करता है। यही विचार लेखिका के व्यक्तित्व में भी उपस्थित है। वो एक लंबी सांस खींचकर कहती हैं कि “हमें मिलकर ऐसा प्यार भरा और नफरत से दूर का समाज बनाना होगा।”