प्रदीप गिरी नहीं रहे

साल, 1973, बीएचयू का राजा राममोहन राय हॉस्टल। वहीं, प्रदीप गिरी, से पहली बार मुलाकात हुई थी। मुलाकात के माध्यम बने थे, नेपाल के ही मेरे मित्र, हरे कृष्ण शाह। शाह, पॉलिटिकल साइंस के छात्र थे, और मैं इतिहास का। शाह हमारे पुराने मित्र, और हम, यूपी कॉलेज वाराणसी में साथ साथ थे। उस पहली मुलाकात में ही, प्रदीप जी ने मुझे बहुत प्रभावित किया, और धीरे धीरे उनसे निकटता बनती गई। आज ही Mohan Prakash मोहन प्रकाश जी की एक पोस्ट से ज्ञात हुआ कि प्रदीप जी, अब नहीं रहे।

वे बीमार थे और लम्बे समय से बीमार थे, यह बात मोहन प्रकाश जी और Rahul Barua से जब बात होती थी, तो पता लगता रहता था, पर उनसे संपर्क मेरा लंबे समय से नहीं रहा। प्रदीप जी, नेपाली कांग्रेस से जुड़े थे, और जब नेपाल में राजशाही के खिलाफ आंदोलन चल रहा था, तब वे निर्वासन में बनारस में रहते थे। देश के समाजवादी आंदोलन से भी उनका जुड़ाव बहुत गहरा था। मुझे पढ़ने लिखने की आदत उन्ही के सोहबत में लगी।

1973 से 79 तक, शायद ही कोई ऐसा दिन हो, जिस दिन, प्रदीप जी, बनारस में हों और उनसे मेरी मुलाकात न होती रही हो। मुलाकात भी घंटो की होती थी और उनसे देश दुनिया की राजनीतिक हलचल, इतिहास, राजनीतिक आंदोलन, क्रांतियों का इतिहास, आदि के बारे में बहुत कुछ जानने समझने को मिलता था। वे इन सब विषयों पर धाराप्रवाह अपनी बात रखते थे, किताबे देते थे पढ़ने को, और फिर कुछ न कुछ पूछते रहते थे। एक प्रकार से वे मेरे मित्र और गुरु दोनों थे।

प्रदीप गिरी से मेरा निजी और पारिवारिक संपर्क भी था। वे एक साल, बनारस स्थित मेरे मकान में भी रहे। पर 1979 के बाद जब मैं नौकरी में आ गया तो, उनसे मेरा संपर्क कम होता गया। पर कभी कभी राहुल बरुआ से उनकी खबर मिलती रहती थी। मोहन प्रकाश जी से जब भी बात होती तो, उनसे भी खबर मिल जाया करती थी। प्रदीप जी की बीमारी की खबर तो मोहन जी से ही मिली मुझे। पर यह नहीं पता था कि इतनी जल्दी वे, इस नश्वर संसार को अलविदा कह देंगे।

वे नेपाल की सक्रिय राजनीति में तो तब भी थे, जब वे निर्वासन में, बनारस में, रह रहे थे। बाद में, वे, नेपाली संसद के लिए चुने गए और वहां के एमपी भी रहे। वे एक प्रखर बुद्धिजीवी और शानदार वक्ता थे। आज अभी अभी उनकी दुखद मृत्यु का समाचार मिला है, तो बीएचयू के पुराने और उनके सानिध्य में बिताए गए दिन, एक एक कर के याद आ रहे हैं। अब वे नहीं रहे, पर उनकी ढेर सारी आत्मीय और स्नेहिल यादें हैं, जिन्हे इस लघु लेख में समेट पाना संभव नहीं हो पा रहा है। मुझे, उनसे बहुत कुछ सीखने और जानने को मिला है।

उनका देहांत, नेपाल, नेपाली कांग्रेस और नेपाल के बुद्धिजीवी समाज और समाजवादी आंदोलन की एक बड़ी क्षति है। नेपाल के लोकतांत्रिक और समाजवादी आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका रही है। उनकी स्मृति को प्रणाम और विनम्र श्रद्धांजलि।

(विजय शंकर सिंह)

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