मेरे आसपास की
ये वो औरतें थीं
जिन्हें काम निपटाने के बाद
जब थकान मिटानी होती
तो ये हाथों में
काटने – छीलने को कोई सब्जी ले लेतीं
बीनने को कोई अनाज उठा लेतीं
उधड़ा हुआ कपड़ा सीने बैठ जातीं
या ऊन का गोला बगल में दबाए सिलाइयाँ लड़ातीं
थककर चूर हुयी
इन औरतों को मैंने
ऐसे ही आराम करते देखा…
ये वो औरतें थीं
जो घर का ही नहीं
पड़ोसियों का भी काम बटातीं
पापड़ बनवातीं
अचार डलवातीं
बढ़ियाँ गिरातीं
पूड़ी तलवातीं
सब्जी छुकवातीं
त्यौहार हों या शादियां
चौके से लेकर
गाना – बजाना
साज – सगुन
हँसते – गाते
ये सब संभाल लेतीं
ये वो औरते थीं
जिनके पास हम बच्चों के लिए
कहानियों जैसी बातें थीं
ज़िन्दगी के
उतार – चढ़ाव हमनें
उनकी इन्हीं बातों से सीखे…
ये वो औरतें थीं
जो डॉक्टर और दवाइयाँ
सब फेल कर देतीं
इनके चौके के डब्बो में
जादूई नुस्खे थे…
ये वो औरतें थीं
जो बड़ी से बड़ी बलाएं
सिर्फ़ नज़र उतारकार टाल देतीं…
ये वो औरतें थीं
जिनके पास हम बच्चों के लिये
इतना आशीर्वाद था
कि कई बार मुझे लगता है
हमारी मेहनत से ज़्यादा
हम इनकी हथेलियों के
स्पर्श से सफल हुए हैं …
ये वो औरतें थीं
जो हमारी गलती पर
चिल्लाती – फटकारतीं भी तो
अथाय पुचकारकर…
यकीन मानिये
मेरे आसपास की
कम पढ़ी – लिखी ये औरतें
वो अद्भुत पाठशाला थीं
जिन्होंने हमें अध्यापकों और किताबों से ज़्यादा
शिक्षित किया…
- लेखिका : पूजा व्रत गुप्ता