जी नहीं। खिलाफत आंदोलन मे शामिल होना गांधी का मास्टरस्ट्रोक था। इस कदम से उन्होने कांग्रेस का राष्ट्र की प्रमुख धारा बना दिया।
समझिये। 1914 तक कांग्रेस वकीलो, हिदूवादियों और मराठी ब्राहमणों का एलीट क्लब था। वह भी तिलक गोखले की लडाई मे क्षीण हो चुका था। 1909-14 मे तिलक जेल मे थे। गोखले के राइट हैण्ड, कांग्रेस के बड़े नेता जिन्ना थे। वेैसे ही जैसे चचा केसरी के समय तारिक अनवर, या नरसिहराव के समय बिट्टा थे। तो तिलक-गोखले लड़ते लड़ते थक गए, बूढ़े हो गए तो गांधी को दक्षिण अफ्रीका से बुलावा भेजा। गांधी आए। देखा, समझा, भारत घूमे। किसानों, मजदूरों, दलितो, मुसलमानों और अछूतो की स्थिति कमजोर थी। टूटे समाज से राष्ट्रीय आंदोलन मे योगदान उम्मीद करना बेमानी था। पहले समाज को आपस मे जोड़ना था, कान्फीडेंस भरना था।
चंपारण गए, किसानो को जोड़ा। अहमदाबाद मिल आंदोलन, मजदूरों को जोड़ा। अपने आश्रम, मे दलितो को जगह दी, इसके कारण कइ्र एलीट समर्थकों को खोया। वे अपना पाखाना खुद साफ करते।
खेड़ा मे किसानों के आदोलन मे वह गए नही, लेकिन वह गांधीवादी आदोलन था।
ये सभी रीजनल आंदोलन थे। लेकिन असर बाहर दूसरे इलाकों मे जा रहा था, सबकी उम्मीदें कांग्रेस से जुड़ रही थी। लोग कांग्रेस से जुड़ रहे थे।
आगे गांधी असहयोग आदोलन करने वाले थे। लेकिन एक बड़ा जनसमूह कांग्रेस से दूर था। ये मुसलमान थे। मुस्लिम लीग भी कोई ताकतवर पैन इंडिया संगठन न थी। वह नवाबों की कठपुतली थी। मुस्लिम उसे अपना संगठन तो नही देखत थे, लेकिन काग्रेस को हिंदू संगठन ही मानते थे। आखिर लाला लाजपत राय ही थे, जिन्होने पंजाब से हिंदू महासभा की नींव डाली। तिलक ही थे, जिन्होने गणेश पंडाल लगवाना शुरू किया। मुंजे और हेडगेवार उस वक्त तक कांग्रेसी हुआ करते थे। गांधी ने एक झटके मे यह सांचा तोड़ दिया।
तुर्की युद्ध हारा। जीतने वाले ब्रिटिश और एलाइज थे। वहां के खलीफा को वैसे ही गद्दीबदर कर दिया गया जैसे जर्मन कैसर और आस्ट्रोहंगेरियन एम्पायर को हटाया गया।
लेकिन तुर्क खलीफा धार्मिक लीडर भी था। दुनिया के मुसलमान उसे रिस्टोर करवाने का आंदोलन कर रहे थे। सात समंदर दूर, भारत मे भी चुल्ल थी। यहां भी खलीफा को रिस्टोर करने के लिए सभा जुलूस हुए।
गांधी से भी समर्थन मांगा गया, तो समर्थन नहीं देने का कोई कारण नही था।
उल्टा अंग्रेजो का घेरने का मौका था। गांधी बाकायदा खिलाफत कमेटी मे शामिल हुए। इस बहाने देश के मुस्लिम जमातो से मेल मुलाकात हुई। उनका कांग्रेस मे विश्वास बना, और वे भी जुड़े।
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खलीफा का कुछ न होना था, न हुआ।
खिलाफत, कोई बड़ा जबरजस्त जंगी आंदोलन न था। फुस्सी बम ही रहा, लेकिन गांधी ने लोगों को जोड़ने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया। और इस जुड़े हुए समाज को अहिंसा, सत्याग्रह का प्रशिक्षण देकर, राष्ट्रीय आंदोलन की अलख जगा दी।
जिन्हे लगता है, कि गांधी, मुसलमानों भारत की मूल धारा मे स्पेस देकर गलत कर रहे थे, वे आज भी खिलाफत आंदोलन मे शामिल होने के लिए गांधी की आलोचना करते है।
यह एक एन्टी मुस्लिम तबका है, जो 100 साल से सावरकर,की लेखनी तथा संघ जैसे अनुषांगिक संगठनों के माध्यम से मुसलमानों को भारत से निकाल फेंकने का माहौल बना रहा है। मै सोचता हूं, कि पिछली बार 5 करोड मुसलमानों को निकाला, आपने देश 20 प्रतिशत भूमि दी। अभी वे 20 करोड है। हिटलर से 60 गुना बड़ा होलोकास्ट करने की औकात देहाती नाजियों की नही है, तो सोचो, इसबार क्या दोगे, क्या बचाओगे।
बहुत से लोग खिलाफत आंदोलन को मोपला दंगो से जाड़कर देखते है। इन दो घटनाओं का आपस मे कोई कनेक्शन नही है।
ठीक उस तरह जैसे कि राजीव गांधी द्वारा 1988 मे राम मंदिर शिलान्यास का 1992 मे बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से कोई संबंध नही है। ये दो काम अलग अलग ग्रुप्स के काम थे। खिलाफत कमेटी अली ब्रदर्स की बनाई गई थी। गांधी इससे जुड़े थे।
मोपला दंगे, लोकल दंगाइयों का काम था, जिन्हे सरेआम फांसी चढा दी गई थी।
दूसरा रास्ता, असल मे एकमात्र रास्ता है
गांधी की तरह जोड़ने की कला सीखिए।