राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का पद भले आसान नहीं है, लेकिन लोहिया, जेपी की राह आसान है नीतीश के लिए

पिछले दो तीन दिनों से चर्चा है नीतीश कुमार क्या करने वाले हैं? क्या बीजेपी से गठबंधन खोल राजद के साथ गांठ बाँधेंगे? लोग ये भी कह रहे हैं बीजेपी उनको घेर चुकी है और किसी भी दिन उनकी मुंडी मरोड़ देगी। मैं देख पा रहा हूँ नीतीश कुमार राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। उन्हें शतरंज खेलना खूब अच्छे से आता है। इसलिए उन्हें पता है किसको कैसे हराना है और कौन सा दांव कब चलना है। बेशक देश में मोदी-शाह की चतुराई की धूम है। मीडिया भोंपू की तरह 24सों घंटे मोदी जी की जय जयकार करती रहती है, लेकिन मान लीजिए अगर मोदी शाह के पीछे संघ का साथ न होता, तो मोदी जी देश की राजनीति में एक प्यादे से अधिक न होते। देश की राजनीति में जिस तरह से उन दोनों ने नफरत और बदले की राजनीति की परंपरा चलाई है वह राजनीति नहीं, सत्ता की गुंडई है। लेकिन नीतीश इस गुंडई भरी राजनीति के बीच भी अपने मन के अनुसार फैसले लेते हैं। यह यह उनकी राजनीति की शुचिता है। उनका आत्मबल है।

बिहार में बीजेपी नीतीश के सहारे पिछले 17 साल से सत्ता में है, इसमें 8 साल मोदी का अमृतकाल भी रहा, लेकिन बिहार में बीजेपी आज भी अपने पैरों पर नहीं उठ पाई है, तो ये नीतीश कुमार की राजनीतिक समझ का परिचय है। बीजेपी के नेताओं ने तमाम तरीके से हिन्दू मुस्लिम उन्माद खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन नीतीश ने सबको बड़ी ही शक्ति से और सख्ती से दबा दिया। जब चाहा केंद्र की नातियों का मुखरता से विरोध किया और बिहार में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखा, सत्ता पर सांप्रदायिक होने का आरोप तक लगने नहीं दिया। महाराष्ट्र में जब यही कोशिश उद्धव ठाकरे ने की, तो बीजेपी सरकार ने शिवसेना को ईडी की गाड़ी से रौंद दिया और तमाम तरीके के संकट खड़े कर दिए। हालांकि, बिहार में भी नीतीश कुमार को तोड़ने की कम कोशिशें नहीं हुई, लेकिन नीतीश कुमार बार बार बीजेपी के जाल को फाड़ देने में कामयाब रहे।

2014 का लोकसभा चुनाव याद कीजिए, बीजेपी ने पासवान, मांझी और कुशवाहा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा और प्लान बनाया कि नीतीश के जातीय समीकरण और आधार को ध्वस्त कर दिया जाए, जिसमें बहुत हद तक बीजेपी को कामयाबी भी मिली। नीतीश कुमार 2 सीट पर समेट दिए गए। लेकिन नीतीश कुमार झुके नहीं और तुरंत राजद से गठबंधन कर 2015 का विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीत लिया। तब ये नारा भी बिहार में चला था- केंद्र में मोदी, बिहार में नीतीश। और मोदी के अमृतकाल में भी नीतीश कुमार ने बिहार में बीजेपी को हार का स्वाद चखा दिया। जबकि बगल के प्रदेश उत्तर प्रदेश में बीजेपी को भारी बहुमत मिला और योगी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

इसके बाद बीजेपी को समझ में आया नीतीश को अगर जोड़ कर नहीं रखा तो वह आगे लोकसभा में भी खेल बिगाड़ दे सकते हैं, लिहाजा फिर बीजेपी-जद यू गठबंधन बना और लोकसभा में जदयू की 2 सीट होने के बाद भी बराबरी पर समझौता हुआ और 2019 के लोकसभा के चुनाव में बीजेपी-जद यू गठबंधन को भारी सफलता मिली। 40 में से 39 सीटें। नीतीश से अलग होकर लड़ने पर बीजेपी गठबंधन को 31 सीटें मिली थीं।

लेकिन यह जानने के बाद भी कि नीतीश कुमार जिसके साथ जाते हैं भारी जीत उसके साथ होती है, बीजेपी ने 2020 के चुनाव में एक बार फिर नीतीश कुमार को पीछे से लंघी मारकर मुंह के बल गिराने की कोशिश की। 2020 के विधानसभा चुनाव में वो मात खा भी गए। वह बुरी तरह कमजोर कर दिए गए। यहाँ तक कहा जाने लगा कि नीतीश कुमार को बीजेपी ने घुटने पर ला दिया। लेकिन नीतीश फिर भी दबाव में नहीं आए।
तब बीजेपी ने बिहार में शिवसेना को तोड़ने वाला फॉर्मूला अपनाया। नीतीश कुमार के सबसे विश्वस्त आरसीपी सिंह को एकनाथ शिंदे बनाने की कोशिश की, लेकिन नीतीश भांप गए और आरसीपी और उनके समर्थकों को साइड लाइन करना शुरू कर दिया। कई नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया। आरसीपी के पर भी कुतर दिए गए। नीतीश एक तो 2020 के चुनाव का धोखा नहीं भूले हैं, दूसरे जदयू में शिंदे खड़ा करने की बीजेपी की कोशिश ने नीतीश कुमार को और चिढ़ा दिया है। अब नीतीश कुमार बीजेपी से आर पार की लड़ाई का मन बना चुके हैं।
नीतीश पिछले विधानसभा चुनाव में ही कह चुके हैं, वो अगला विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। तो जाहिर है वो बिहार की कुर्सी की राजनीति से बाहर आना चाहते हैं, लेकिन वह राजनीति में हार के साथ बाहर आना नहीं चाहते। वह नहीं चाहते इतिहास में उन्हें बिहार में बीजेपी-संघ को सांप्रदायिक खेती के लिए जमीन तैयार कर देने वाले नेता के तौर पर याद किया जाए। आज जब बीजेपी और संघ ने अपने सारे जहरीले दांत और नाखून दिखा दिए हैं, लोग बार बार कहते हैं कि लोहिया और जयप्रकाश ने संघ को जड़ जमाने का आधार दिया। सनाजवादियों पर यह बड़ा आरोप दाग की तरह है। कांग्रेस ने इमरजेंसी में भी सारी नैतिकताओं और संवैधानिक संस्थाओं को ताक पर नहीं रखा था, लेकिन बीजेपी ने निर्लज्जता को ही अपना हथियार बना लिया है। झूठ बोलना उसकी रणनीति का सबसे बड़ा हिस्सा है। लोकतंत्र और संविधान को बिना इमरजेंसी घोषित किए खत्म कर दिया है। सारी संवैधानिक संस्थाएं उसके इशारे पर चल रही हैं। महंगाई आसमान पर है। नफरत की राजनीति चरम पर है। विपक्ष को खत्म करने का अभियान चलाया जा रहा है। ऐसे में जरूरी है, बीजेपी के नफरत अभियान को रोकने की मजबूत कोशिश हो। बिहार और उत्तरप्रदेश में कांग्रेस कमजोर है। विपक्ष के पास कुशल नेता नहीं हैं। तेजस्वी और अखिलेश परिपक्व नहीं हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के सामने चुनौती है कि वह विपक्ष को मजबूत करें और विपक्ष की ओर से मोर्चा संभालें। खासकर बिहार और यूपी में।
नीतीश इसलिए भी मजबूत कड़ी हैं कि नीतीश पर न तो बीजेपी वंशवाद का आरोप लगा सकती है और ना ही भ्रष्टाचार का। आरसीपी सिंह की संपत्ति को लेकर पार्टी से पूछताछ करवा स्पष्ट कर दिया है कि उनके पास बिहार के बड़े बीजेपी नेताओं की कुंडली है और अगर ईडीवार बिहार में भी शुरू किया, तो मामला दूर तक चला जाएगा।
नीतीश कुमार ने बीते 17 सालों में नेताओं पर बड़ा लगाम लगाए रखा है। इसलिए नेताओं की कमाई के अवसर कम ही रहे। अफसरशाही में जरूर भारी भ्रष्टाचार है, लेकिन अगर कोई अफसर फँसते हैं, तो नीतीश की छवि पर असर नहीं पड़ता। कुछ नेता भी अगर ईडी के रडार पर आते हैं तो भी नीतीश को फर्क नहीं पड़ता। वो पहले कह चुके हैं और बार बार कहते रहे हैं- हम न किसी को फँसाते हैं, न बचाते हैं। इसलिए बिहार में जान सांसत में बीजेपी की है। बिहार की जनता को भली भांति पता है कौन कौन नेता भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है। तो भाई नीतीश की गाड़ी अब रुकने वाली नहीं, आप जिस तरह से युद्ध करना चाहते हो, तैयार हैं।
नीतीश हर हाल में नेता बनके निकलेंगे। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का पद भले उनके लिए आसान नहीं है, लेकिन लोहिया, जेपी की राह आसान है उनके लिए।


धनंजय कुमार