‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय’ हमेशा से ठुमरियों में मेरी पहली पसंद रही है। पिछले डेढ़ सौ सालों में इस ठुमरी को देश के लगभग सभी गायक-गायिकाओं ने अपनी आवाज़ दी। कुंदन लाल सहगल ने फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में गाकर इसे लोकप्रियता का एक नया आसमान दिया था। कल देर रात यह ठुमरी सुनते हुए मुझे इसके रचयिता वाज़िद अली शाह की याद आई। अवध के दसवें और आखिरी नवाब वाज़िद अली शाह भारतीय इतिहास के कुछ सबसे अलबेले चरित्रों में एक रहे हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व कुछ इस क़दर रहस्यमय और विवादास्पद रहा है कि, उनका मूल्यांकन करनेवाले इतिहासकार खुद आपस में उलझकर रह गए हैं। एक शासक के रूप में उन्हें कसौटी पर कसना इतिहासकारों का काम है। मुझे नवाब के भीतर का बेचैन कलाकार बहुत आकर्षित करता है। जाने कितना कुछ छुपा हुआ था उनके भीतर जिसकी अभिव्यक्ति की कोशिश कभी उन्होंने संगीत के रूप में की, कभी शायरी में, कभी पैरों में घुंघरू बाँधकर नृत्य के रूप में और कभी स्टेज पर खड़े होकर नाटक के किसी पात्र के रूप में। उनकी जीवनगाथा पढ़ और महसूस कर लेने के बाद लगता है कि इतना कुछ कर और कह लेने के बाद भी उनके भीतर कहीं कुछ अनकहा जरूर रह गया था जिसकी कसक लेकर वे इस दुनिया से विदा हुए।
संगीत, वाज़िद अली शाह का पहला प्यार था। कहते यह हैं कि उनकी बातों और उनकी चालढाल में भी संगीत का अंदाज़ हुआ करता था। संगीत की विधिवत शिक्षा लेने वाले नवाब संगीतप्रेमी ही नहीं,खुद भी एक उम्दा ठुमरी गायक रहे थे। उन्हें गायन की उपशास्त्रीय विधा ठुमरी का जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने खुद दर्जनों ठुमरियों की रचना की थी। उनके दरबार में लगभग हर शाम संगीत की महफिलें सजती थीं जिनमें अवध क्षेत्र के कुछ बेहतरीन गायक और नर्तक शिरकत करते थे। संगीत के उन महफिलों की खासियत यह थी कि उनमें ठुमरी को कत्थक नृत्य के साथ गाया जाता था। ठुमरी के साथ शास्त्रीय नृ्त्य शैली कत्थक के विकास में भी उनके दरबार का ख़ास योगदान था। नवाब वाजिद अली शाह ने कत्थक नृत्य की बारीकियों पर किताबें भी लिखी थीं। उनकी एक पुस्तक ‘बानी’ में छत्तीस तरह प्रकार के रहस बताए गए हैं। कत्थक शैली में व्यवस्थित इन प्रकारों में कुछ प्रसिद्ध नाम हैं घूंघट, सलामी, मुजरा, मोरछत्र और मोरपंखी। इस पुस्तक में रहस विशेष में पहनी जाने वाली पोशाकों, आभूषणों और मंचसज्जा का भी विस्तृत उल्लेख है। कत्थक के प्रसार लिए उन्होंने कैसरबाग में एक परीखाने की स्थापना की थी। परिखाने में दूसरे नर्तक-नर्तकियों के साथ उनके हरम की औरतें भी शामिल हुआ करती थीं। ठाकुर प्रसाद और दुर्गा प्रसाद उनके दरबारी नर्तक और नृत्य गुरु थे जिनसे उन्होंने नृत्य की शिक्षा ली थी। कहा जाता है कि उन्होंने भारत के प्रसिद्ध कत्थक नर्तक पंडित बिरजू महाराज के पूर्वजों को संरक्षण के अलावा लखनऊ में उन्हें रहने के लिए एक घर भी दिया था। उन्हीं के दरबार में गुलाबों सिताबों नामक विशिष्ट कठपुतली शैली का विकास एक दृश्य कला के रूप में हुआ जो वाजिद अली शाह की जीवनी पर आधारित है।
नवाब वाज़िद अली शाह गायक और नर्तक के अतिरिक्त एक नाटककार भी रहे थे। उनके रचित और अभिनीत नाटकों का केंद्रीय विषय सांप्रदायिक सौहार्द्र होता था। हिन्दुओं और मुसलमानों की साझा संस्कृति के विकास की कोशिशों के सिलसिले में उन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम पर कई बेहततीन नज़्में लिखने के अलावा एक लोकप्रिय नाटक की भी रचना की थी। उस नाटक को उनकी देखरेख में लखनऊ में रहस की तर्ज पर खेला जाता था। वाजिद अली उसमें कृष्ण की भूमिका खुद निभाया करते थे। कृष्ण की अपनी भूमिका में वे इस क़दर लोकप्रिय हुए कि लोग उन्हें श्याम पिया के नाम से बुलाने लगे।
हिंदी तो क्या, उर्दू के भी कम लोगों को ही पता है कि ‘अख्तर’ उपनाम से वाज़िद अली शाह एक बेहतरीन शायर थे। उन्होंने ख़ुद ही नहीं लिखा, अपने दौर के कई शायरों और लेखकों को संरक्षण और प्रोत्साहन भी दिया। ‘बराक’, अहमद मिर्जा सबीर, मुफ्ती मुंशी और आमिर अहमद ‘अमीर’ उनमें से कुछ प्रमुख नाम थे । वाज़िद अली शाह की ज्यादातर गज़लें और नज़्में अब लुप्तप्राय हैं, लेकिन शायरी का उनका स्तर क्या था इसे जानने के लिए उनकी एक ग़ज़ल के कुछ अशआर अशआर देखिए – साकी की नज़र साकी का करम / सौ बार हुई, सौ बार हुआ / ये सारी खुदाई, ये सारा ज़हाँ / मयख्वार हुई, मयख्वार हुआ / जब दोनों तरफ से आग लगी / राज़ी-व-रजा जलने के लिए /तब शम्मा उधर, परवाना इधर / तैयार हुई, तैयार हुआ।
अंग्रेजों द्वारा अपनी रियासत के अधिग्रहण और निष्कासन के बाद ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय’ गाते हुए ही वाज़िद अली शाह ने अपने लोगों को अलविदा कहा था। कहा जाता है कि अलविदा के वक़्त वे खुद भी रो रहे थे और उनकी रियाया भी रो रही थी। निष्कासन के बाद उन्हें कलकत्ता के मटियाबुर्ज में पनाह मिली थी। निष्कासन के दौरान ही 1887 में पैसठ साल की उम्र में उनका देहावसान हुआ था। उनके निष्कासन को जायज ठहराने के लिए अंग्रेजों ने उनकी ढेर सारी बेगमों और उनकी विलासप्रियता के असंख्य सच्चे-झूठे किस्से फैलाए थे।
ख़ुद नवाब ने अपनी किताब ‘परीखाना’ में अपने जीवन के इस पक्ष का साफगोई से खुलासा किया है। इस किताब में उन्होंने छब्बीस साल की उम्र तक बहुत सारी महिलाओं के साथ अपने प्रेम प्रसंगों के अलावा संगीत, नृत्य, साहित्य से अपने जुड़ाव के अनुभवों को साझा किया है। हैलेवेलिन जोन्स की अवध क्षेत्र की पृष्ठभूमि में लिखी गई एक किताब ‘द लास्ट किंग’ में वाजिद अली शाह के किरदार का जो मूल्यांकन किया गया है, वह सही लगता है। यह किताब नवाब को स्त्रीलोलुप तो बताती है, लेकिन यह भी मानती है कि अवध को अगर वाजिद अली शाह न मिले होते तो आज हम लखनऊ की नफासत और नजाकत के जैसे किस्से कहते-सुनते हैं उसका स्वरूप शायद वैसा बिल्कुल नहीं होता।
व्यक्तिगत जीवन की कुछ कमियों के बावजूद अपनी उदारता, कलाप्रियता, सर्वधर्मसमभाव और संवेदनशील स्वभाव के कारण नवाब अपनी रियाया में किस क़दर लोकप्रिय थे, इसका अंदाज़ा उस दौर के एक प्रसिद्ध गीत से लगाया जा सकता है जो लखनऊ से उनके निष्कासन के बाद लोग गाया करते थे – हाय तुम्हरे बिन बरखा ना सोहाय / अल्ला तुम्हे लाए हाय अल्ला तुम्हें लाए / हम पर कृपा करो रघुनन्दन / वाज़िद अली मोरा प्यारा / गलियन गलियन रैयत रोवै / हटियन बनिया बजाज रे / महल में बैठी बेगम रोवै / डेहरी पर रोवै खवास रे !
ध्रुव गुप्त
© Dhruv Gupta