समझौते का सवाल ही नहीं उठता, लड़ाई शुरू होने दो: संजीव भट्ट की कविता

सच बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है, खासकर तब जब तानाशाही सरकार होती है।

सत्ता पाने के लिए, विश्व में धर्मनिरपेक्ष भारत की छवि को दफना देने की 2002 गुजरात दंगे में कुछ ही अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन किए बाकी रवायत के अनुसार अपने मुखिया के गलत आदेशों को अंजाम देने व दंगों को हवा दे रहे थे।

ऐसे ही संवैधानिक कर्तव्य का पालन करने वाले संजीव भट्ट बदले की आग में जलाए जा रहे हैं, हमारी अदालतों की इतनी हिम्मत नहीं कि वह उन्हें ससम्मान रिहा कर सकें या जमानत दे सकें। तानाशाह की चिंता है कि संजीव भट्ट माफी मांग लें, पर संजीव भट्ट भी इस जमाने में विचित्र प्राणी है जिसकी जिद्द है कि “सर कटा सकते हैं पर सर झुका सकते नहीं “
पढ़ें उस जीवट व्यक्ति की एक कविता

मेरे पास सिद्धांत हैं और कोई सत्‍ता नहीं
तुम्‍हारे पास सत्‍ता है और कोई सिद्धांत नहीं
तुम्‍हारे तुम होने
और मेरे मैं होने के कारण
समझौते का सवाल ही नहीं उठता
इसलिए लड़ाई शुरू होने दो …

मेरे पास सत्‍य है और ताकत नहीं
तुम्‍हारे पास ताकत है और कोई सत्‍य नहीं
तुम्‍हारे तुम होने
और मेरे मैं होने के कारण
समझौते का सवाल ही नहीं उठता
इसलिए शुरू होने दो लड़ाई …

तुम मेरी खोपड़ी पर भले ही बजा दो डंडा
मैं लड़ूंगा
तुम मेरी हड्डि‍यां चूर-चूर कर डालो
फिर भी मैं लड़ूंगा
तुम मुझे भले ही जिंदा दफन कर डालो
मैं लड़ूंगा
सच्‍चाई मेरे अंदर दौड़ रही है इसलिए
मैं लड़ूंगा
अपनी अंतिम दम तोड़ती सांस के साथ भी
मैं लड़ूंगा …

मैं तब तक लड़ूंगा, जब तक
झूठ से बनाया तुम्‍हारा किला
ढह कर गिर नहीं जाता
जब तक जो शैतान तुमने अपने झूठों से पूजा है
वह सच के मेरे फरिश्‍ते के सामने घुटने नहीं टेक देता

संजीव भट्ट
Sanjiv Bhatt

(हिन्दी अनुवाद “आउटलुक आनलाइन”)
#vss