कांग्रेस में नए अध्यक्ष की तलाश

प्रेमकुमार मणि

अखबारों से मिल रही सूचना के अनुसार कांग्रेस संगठन शायद अपना अध्यक्ष बदलने जा रहा है. लम्बी अवधि के बाद संभव है, नेहरू परिवार से अलग का कोई अध्यक्ष हो सकता है, इसकी अटकलें हैं. आज कांग्रेस की स्थिति ऐसी हो गई है कि जन सामान्य की उसमें रूचि ही नहीं रह गई है. बावजूद इसके राष्ट्रीय स्तर पर जब भी भाजपा के विकल्प की चर्चा होती है, तब कांग्रेस का ध्यान आता ही है. उसे ख़ारिज कर के या हासिए पर रख कर आज भी हम गैर भाजपा विकल्प की कल्पना नहीं कर सकते.


कांग्रेस पर जब भी सोचता हूँ तब कई सारी बातें एक साथ सामने आती हैं. सामान्य तौर पर यह मान लिया गया है कि इस पार्टी की दुर्दशा परिवारवाद के कारण हुई. नेहरू परिवार के इस पार्टी पर प्रभाव के कारण. इसे बिलकुल ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता.

कांग्रेस का इतिहास देखा जाय तो पहली दफा 1919 में मोतीलाल नेहरू इस पार्टी के अध्यक्ष हुए थे. यह 2022 का साल है. इस बीच 103 वर्षों के कांग्रेसी इतिहास में नेहरू परिवार के किसी न किसी सदस्य की अध्यक्षता में कांग्रेस 48 साल रही. कुल छह लोग इस परिवार से कांग्रेस अध्यक्ष बने. मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी. मोतीलाल नेहरू 2 बार, जवाहरलाल नेहरू 8 बार, इंदिरा गांधी 7 बार, राजीव गांधी 7 बार, राहुल गांधी 2 बार और सोनिया गांधी 22 बार अध्यक्ष बने.

लेकिन यह भी ध्यान देने लायक है कि 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया तब नरसिंह राव और सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बने. इनकी अध्यक्षता में कांग्रेस लगातार नीचे जा रही थी. कांग्रेस न केवल सांगठनिक स्तर पर, बल्कि वैचारिक स्तर पर भी कमजोर होती गई. तब जाकर 1999 में सोनिया गांधी ने मोर्चा संभाला और अगले पांच वर्षों में कांग्रेस को इस हाल में लाया कि केंद्र में सरकार बना सके. अगले दस वर्षों तक कांग्रेस केंद्र सरकार में रही.
लेकिन इस बीच कांग्रेस ने स्वयं को मजबूत करने की कोई कोशिश नहीं की. इसके प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व गैर राजनीतिक था और वह एक सी ई ओ के रूप में कार्य करते रहे. प्रशासनिक तौर पर उनका कार्य थोड़े अपवादों के साथ अच्छा ही था.

लेकिन इसी बीच कांग्रेस पर राहुल गांधी को थोपने की कोशिश हुई. राहुल व्यक्ति रूप में बेहतर इंसान हो सकते हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व राजनीतिक बिलकुल नहीं है. न ही प्रभावी वक़्ता, न ही कार्यकर्त्ता. अपने इर्द -गिर्द उन्होंने एक पुत्रमंडलम विकसित किया. सिंधिया के बेटे ,पायलट के बेटे, प्रसाद के बेटे आदि -आदि. राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कांग्रेस गाँव -कस्बों के कार्यकर्ताओं से आप्लावित हुई थी. राहुल गांधी ने चिकने -चुपड़े अंग्रेजीदां लोगों की भरमार लगा दी जो किसी कम्पनी के मुलाजिम ज्यादा लगते थे. अधिक सुरक्ष घेरे और मिलने-जुलने के शाही अंदाज़ ने भी राहुल को नुक्सान पहुँचाया. शर्मीलापन या अनाड़ीपन को वह दूर कर सकते थे. लेकिन वह हमेशा एक घेरे में रहे.

जवाहरलाल उनसे कहीं अधिक संपन्न घेरे में पले -बढे थे. मोतीलाल नेहरू ने उनके लिए शाही सुविधाएं और माहौल मुहैय्या कराया था. लेकिन उन्होंने उस शाही घेरे को तोड़ दिया था. वह आमजन से घुल मिल जाते थे. उनसे सीखते भी थे. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वयं को अमीर बाप का बिगड़ा हुआ बेटा के रूप में स्वीकार किया है. लेकिन उन्होंने स्वयं को जनता से जोड़ा और डीक्लास किया. यही जवाहरलाल नेहरू की निधि थी. इसी बूते वह भारत को समझ सके. राहुल ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया. किसी कार्यकर्त्ता का उनसे मिलना सहज कभी नहीं हुआ.


अब सोनिया जी थक चुकी हैं और शायद उनका स्वास्थ्य सक्रिय रहने की इजाजत नहीं दे रहा. राहुल ने जिम्मेद्दारी लेने से संभवतः इंकार कर दिया है. खबर है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष हो सकते हैं. 71 वर्षीय गहलोत, सामाजिक स्तर पर अत्यंत पिछड़े माली समुदाय से आते हैं और पढ़े-लिखे हैं. राजनीतिक तिकड़म भी खूब जानते हैं . लेकिन वक़्ता अच्छे नहीं हैं. जिस राजस्थान के वह मुख्यमंत्री हैं वहां उनकी बिरादरी के लोगों की संख्या दो प्रतिशत से अधिक नहीं है. इसका अर्थ है वह दूसरों को जोड़ कर रखना जानते हैं. इसी तरह यदि भारत को जोड़ सकें और कांग्रेस को भी तब कुछ नए नतीजे आ सकते हैं.
अभी 2024 के लोकसभा चुनाव में बीस महीने की देर है. मैं नहीं जानता इस बीच कांग्रेस कितनी मजबूत होगी. उसकी असली समस्या नई पीढ़ी से उसके जुड़ने की है. दलितों , पिछड़े वर्गों और किसान मजदूरों के बीच कांग्रेस की जो अपील थी वह आज नहीं है. इसे यदि वह पुनर्जीवित कर सके और नौजवान पीढ़ी को बड़ी संख्या में आत्मसात कर सके तो उसे विकल्प बनने से कोई रोक नहीं सकता. वैचारिक स्तर पर भी नेहरूवाद की व्याख्या नई स्थितियों में उसे करनी चाहिए. नयी पीढ़ी में इससे उसका आकर्षण बढ़ सकता है. हालांकि यह सब स्वीकार करना कांग्रेस केलिए आसान नहीं होगा.


यदि गहलोत कांग्रेस के सक्षम अध्यक्ष बने तो इसकी एक बड़ी राजनीतिक प्रतिक्रिया यह होगी कि कमजोर कांग्रेस के बूते प्रधानमंत्री का ख्वाब देखने वाले कई इलाकाई पार्टियों के नेताओं के ख्वाब टूट जाएंगे. विपक्ष की मुसीबत यही है कि अभी वह ख्वाबों के संघर्ष में ही शामिल है,हकीकत के संघर्ष में उसे आने की तैयारी करनी चाहिए.