राजनीतिक बियावान में भटक रहीं भगवाधारी संन्यासिन उमा भारती ने कहा कि हम नहीं भूलेंगे कि सोनिया गांधी इटैलियन मूल की हैं.
पाखंड की अति देखिए कि ऋषिसुनक के भारतीय मूल के होने पर हम गर्व महसूस करते हैं जबकि वो ब्रिटिश नागरिक है.अमेरिकन कमला हैरिस के नाम पर हम तालियां बजाते हैं लेकिन सोनिया गांधी से नफरत करते हैं.
ऊपर मैंने संन्यासिन शब्द पर इसीलिए जोर दिया क्यूंकि संन्यास का मतलब होता है त्याग.
सवाल है कि उमा भारती ने क्या त्याग किया है इस मुल्क के लिए?
नब्बे के दशक से उनकी पूरी यात्रा सांप्रदायिकता की नाव पर सवार होकर सत्ता हासिल करने की रही है. तमाम हथकंडों, चाटुकारिता और दंगाई राजनीति के चरम इस्तेमाल के बाद भी क्या बन पाईं – कैबिनेट मंत्री. इसके बाद भी बाहर फेंक दी गईं.
भारत का प्रधानमंत्री होना कोई मामूली बात नहीं. जिस पद को पाने के लिए मोरारजी देसाई से लेकर मोदी तक ने क्या क्या-क्या नहीं किया उसको सोनिया गांधी ने गरिमा के साथ त्याग दिया.
त्यागने की क्षमता होना सबसे बड़ी बात है. जो चेतना के आवाहन पर, अपने ड्यूटी के लिए सब कुछ त्याग सकता है वही महान है. कृष्ण ने गीता में यही कहा था – हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम, जीत्वा वा भोक्क्षयसे महीम
मुझे याद आ रहा है कि तब के राष्ट्रपति डॉ कलाम ने तारीफ करते हुए कहा था कि सोनिया गांधी अगर चाहती तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं लेकिन उन्होंने मना कर दिया.
बुद्ध,अशोक से लेकर गांधी तक भारतीय परंपरा में इसीलिए सम्मानित हैं क्यूंकि उनके अंदर त्यागने की क्षमता थी. पुजारी वर्ग (हर धर्म में होता है) की बात नहीं कर रहा लेकिन भारतीय समाज में ब्राह्मण भी इसीलिए सम्मानित थे क्यूंकि उनके अंदर त्यागने की क्षमता थी – renunciation.
कबीर, रैदास के अंदर ज्ञान भी था, त्याग भी था. इसीलिए भारतीय समाज उन्हें भगवान के बराबर का दर्जा देता है.
यह दर्जा पाखंडियों को न मिला है, न मिलेगा. भगवा पहनकर संन्यासी बनने के नाम पर सत्ता लूटने वालों को यह मुल्क देर-अबेर वक्त के उसी कूड़ेदान में फेंकता आया है – जहां आज उमा भारती हैं. कल को साहब से लेकर उनके कारिंदे तक सब वहीं फेंके जाएंगे.
लेखक : विश्व दीपक