एक लंबे समय तक देश मे आयाराम गयाराम की पॉलिटिक्स की वजह से निर्वाचित सरकारे गिरती रहीं। मध्यप्रदेश में विजयाराजे ने डीपी मिश्रा की कांग्रेस सरकार गिराकर इसका श्रीगणेश किया।

पैसे, पद के लोभ में या किसी अन्य भयादोहन से विधायको सांसद मनमर्जी से डोलते। दो दशक तक यह क्रम कई राज्यो में चला। नतीजा, राजीव के दौर में दल बदल क़ानून आया।
कानून फुटकर दल बदल को रोकता है, थोक में दल बदलने की इजाजत देता है। कुछ समय तक इसका असर दिखा, लेकिन फिर इसके लूपहोल ईजाद होने लगे।
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अब इतने लूपहोल ईजाद हो चुके हैं, कि यह कानून बेकार हो चला है। दलबदल से सरकारे तो अब भी गिर रही हैं। दूसरी तरफ इस कानून ने संसदीय लोकतंत्र को पूरी तरह तहस नहस कर दिया है।
सांसद विधायको को, जिनका काम ही बहस, चर्चा करना है, उनकी व्यक्तिगत, और बौद्धिक स्वतंत्रता समाप्त हो चुकी है।
सत्ता पक्ष के सांसद सबसे ज्यादा “बेचारे” हैं। उन्हें अपनी जनता को, सरकार के एक्शन का जवाब देना होता है। लेकिन सरकार तो उनसे कोई विमर्श नही करती। वे टीवी पर कोई नया आदेश देखते हैं, व्हाट्सप पर व्हिप आ जाता है।
और उन्हें अब डिफेंड करना है, समर्थन करना है, चुप रहना भले ही वे खुद इससे असहमत हों। असल मे सोशल मीडिया पर लिखने वाले , पान ठेले की बहसों वाले एक सांसद से अधिक स्वतन्त्र हैं।
इस क़ानूम ने लेजिस्लेचर की “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर सबसे पहले चोट की है।
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समय के साथ इसका विस्तार हुआ है। कानून को सिर्फ वहां लागू होना था, जहां सरकार के गिर जाने का खतरा हो। अब किसी मीडिया में बोलना, किसी विपक्षी से मिलना, कहीं आना जाना भी मुहाल है। आपको दूसरे दल के साथ शत्रुवत व्यवहार करना मजबूरी है।
क्योकि ऊपरवाला देख रहा है। आप पर शक कर रहा है। आपको राज्यसभा वोट करने के पहले अपना मतपत्र भी पार्टी अध्यक्ष के लठैत को दिखाना होता है।
इतना मजबूर तो तो राह चलता आम वोटर भी भी नही।
भारत मे अब कोई राष्ट्रपति, अंतरात्मा की आवाज पर नही बनेगा। देश हर पद, वह नेता तय करेगा, नॉमिनेट करेगा, जिसके दल में 272 सांसद जीतकर आ गए हैं।
नतीजा यह कि हर पद पर एक पिग्मी, काठ का उल्लू, किसी अनाम शख्सियत को बिठाकर तानाशाही चलाई जा सकती है।
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इसने मन्त्रिमण्डल को भी बेकार कर दिया है। क्योंकि मंत्री भी तो, पहले सांसद है। वह भी चुप है, मजबूर है, खुद के मंत्रालय पर जोर नही।
लेकिन सबसे बुरा असर है देश के कानूनों पर। एक लोकसभा जो कानून बनाती है, आने वाले दशकों तक उसका असर,कुछ पीढ़ियों को को भुगतना है। जब 500 दिमाग इस पर बात करते हैं, हर नुक्ते पर सोचते विचारते हैं, तो कानून निखरता है। जनता भी उसके पहलुओं से वाकिफ होती है।
विपक्ष में बैठे प्रशासक, अनुभवी लोग जो रक्षा, विदेश, गरीबी उन्मूलन, व्यवस्था का विशाल अनुभव रखते हैं, वे भले आज बहुमत में नही, लेकिन आलोचना के माध्यम से कानून को एनरिच करते हैं। यही तो विधायिका का , संसद का, विधानसभा के होने का औचित्य है।
दल बदल कानून ने उसका औचित्य ही खत्म कर दिया है। पक्ष और विपक्ष दोनों बेबस है। दो व्यक्ति मनमर्जी से देश को हांकने में सक्षम हैं।
जो मर्जी, वो कानून बनाकर पास करवा सकते हैं।
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और डायनेस्ट अपनी पार्टी को। सहानुभूति लहर, विशेष सरनेम और लिगेसी के बूते से पांच दस या सौ सीट जीतने के बाद काम खत्म नही होना था। सांसदों, विधायको को हर विषय पर ब्रीफ करके, ओपिनियन लेकर पार्टी चले, यह दूसरा हिस्सा है।
जिसकी अब जरूरत नही, एक व्हिप काफी है। आंतरिक चर्चा से जो कोर्स करेक्शन होता, लीडरशिप उभरती, नए विकल्प उभरते, वह समाप्त हो गया। पार्टी बाहर होने, टिकट न मिलने की तलवार के नीचे आपका चुना हुआ विधायक, सांसद बस एक बंधुआ मजदूर है।
और विपक्ष खत्म। आप एक लीडर, एक घराने के ऊपर ईडी सीबीआई के मामले लादकर पार्टी को घुटनों पर ला सकते हैं। ऐसे मामलों में कोई तत्व न हो, कभी साबित न किये जा सकते हो, लेकिन क्या फर्क पड़ता है।
रेड की हेडलाइन, पूछताछ की खबरे परसेप्शन बनाने को काफी हैं। आज का सोशल मीडिया गुलजार रहेगा। कल का चुनाव निकल जायेगा।
खेल तो परसेप्शन का है बस …
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इस कानून के दर्जन भर नुकसान और हैं। जिस उद्देश्य से आया था , वह पूरा न हुआ, दर्जनों साइड इफेक्ट जरूर हो गए।
जो शरीर ही खत्म कर रहे हैं। दवाओं की दुनिया मे ऐसा होता है। वायरस रूप बदल लेता है, वैक्सीन उस पर कारगर नही रहती, शरीर पर बुरा असर होता रहता है। ऐसे में दवा लेनी रोक देना चाहिए।
मौजूदा सरकार, राजनैतिक तंत्र वह वायरस है, जो सम्विधान, कानून ,नियमों पर नही, उसके लूप होलो से ताकत पाता है। दलबदल कानून इस वक्त उसके हाथ मे वह दुर्घर्ष ताकत है, जिससे वह लोकतंत्र को पीटपीट कर मार रहा है।
मेरी बात यहीं खत्म होती है।
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आप सवाल कर सकते है कि ये कानून कौन सा दल लाया, ऐसा संविधान किसने बनाया, लूपहोल किसने छोड़े? आप उस ब्रीड के है, जिसे महज कांग्रेस – भाजपा बहस करनी है। करें …
कुछ पाठक समाधान बताने की बातें कहेगें। समाधान एक ही है कि अविश्वास प्रस्ताव छोड़कर शेष हर मुद्दे से दलबदल कानून निष्प्रभावी कर दिया जाए। पर ऐसा संभव नही,
इससे तो आपका स्थानीय सांसद शक्तिशाली हो जाएगा।
वह अपनी ही सरकार के बेमतलब कानूनों को वीटो करने लगेगा, नेता से सवाल करने लगेगा। आपके अकेले चलने वाले शेर को इन 303 सांसदो की कद्र करनी होगी।
नोटबन्दी के पहले, जीएसटी के पहले, तेल गैस के दाम बढाने के पहले, सरकारी संपत्ति बेचने के पहले, अग्निपथ या कृषि कानून के पहले , या लंका म्यांमार को अडानी की मदद हेतु चिट्ठी लिखने के पहले …. आपके सांसद से पूछना पडेगा।
और तानाशाह कभी इतना लोकतंत्र नही चाहेगा।
मालिक बन चुका चोर, कभी चौकीदारी नही चाहेगा।
